अंबेडकर का जीवन भारत में सामाजिक सुधार को समर्पित था। उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता निवारण के लिए जीवन भर कार्य किया। वे भारत के स्वाधीनता के समर्थक थे किंतु स्वाधीनता के राजनीतिक पक्ष के बजाय सामाजिक पक्ष को सुदृढ़ करने पर जोर देते थे। व्यक्ति के अधिकार तभी संरक्षित है, जब उनके पीछे सामाजिक स्वीकृति हो। यदि मौलिक अधिकारों का समुदाय द्वारा विरोध होता है, तो कोई भी कानून, न्यायालय और संसद उनकी रक्षा नहीं कर सकते। वस्तुतः कानून व्यक्तियों की भावनाओं के प्रति छाया होता है। अंबेडकर के शब्दों में जब तक भारत के लोग अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे, तब तक कोई प्रगति नहीं होगी। जाति व्यवस्था की नींव पर आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते।
यह भी पढ़ें:
जाति
प्रथा उन्मूलन में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की महती भूमिका होगी। बुद्धिजीवी वर्ग
वह है, जो दूरदर्शी होता है। सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर सकता है। किसी
देश का संपूर्ण भविष्य उसके बुद्धिजीवी वर्ग पर निर्भर होता है। यदि बुद्धिजीवी
वर्ग ईमानदार, स्वतंत्र और निष्पक्ष है तो उस पर भरोसा किया
जा सकता है कि संकट की घड़ी में वह पहल करेगा। उचित नेतृत्व प्रदान करेगा। किंतु
यह सोचकर खेद होता है कि भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का ही दूसरा नाम
है। अतः जाति प्रथा समाप्त करने वाले आंदोलन का सफल होना संभव दिखाई देता है।
यह भी पढ़ें: 12वीं पास युवाओं के लिए बड़ी खुशखबरी, पुलिस कांस्टेाबल के पदों पर होगी 40000 नई भर्तियां
अंबेडकर
धर्म के नियमों की निंदा करते हैं तथापि धर्म को आवश्यक मानते हैं और धर्म में
सुधार के लिए सुझाव भी देते हैं। उनका मत है कि पुरोहिताई पुश्तैनी नहीं होनी
चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने को हिंदू मानता है, उसे राज द्वारा परीक्षा
पास कर सनद प्राप्त कर लेने पर पुजारी बनने का अधिकार होना चाहिए। बिना सनद के
धर्म अनुष्ठान करने को कानूनन वैध नहीं माना जाना चाहिए। पुजारी एक सरकारी नौकर
होना चाहिए, जिसके ऊपर नैतिकता आस्था और पूजा के मामले में
अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सके। पुजारियों की संख्या को कानून द्वारा आवश्यकता
अनुरूप सीमित किया जाना चाहिए। हिंदू पुजारी केवल ऐसा है जिसके लिए कोई आचार
संहिता निर्धारित नहीं है।पुरोहित वर्ग को कानून द्वारा नियंत्रण में लाया जाना
चाहिए, जिससे पुरोधा ही लोकतांत्रिक संस्था बन जाएगी और पुरोहित
बनने के अवसर सभी के लिए खुल जाएंगे। इससे ब्राह्मणवाद को मारने में मदद मिलेगी और
जाति प्रथा के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त होगा, जो
ब्राह्मणवाद की ही देन है। अंबेडकर ने स्पष्ट कहा है कि जाति प्रथा का उन्मूलन का
कार्य स्वराज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।
यह भी पढ़ें: ओपी राजभर और दारा सिंह चौहान का अखिलेश पर हमला, कहा- मुसलमान, ब्राह्मण-राजपूत अपराधी के एनकाउंटर चुप क्यों?
डॉ.
अम्बेडकर का मानना था कि व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्र की तुलना में सदैव पीछे रहना
चाहिए। हम सभी को व्यक्तिगत स्वार्थों को देश हित से अलग रखना होगा अन्यथा हितों
का टकराव समाज एवं राष्ट्र की एकात्मता के विपरीत जाता है। इसलिए उन्होंने बहुत
स्पष्टता के साथ कहा है,
”इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को बहुत प्यार
करता हूं। मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं अपने देश को सदैव
प्राथमिकता दूंगा।” आज विषमताओं और सदियों से संघर्षरत
अम्बेडकर को अनेकानेक स्वार्थी राजनीतिकों ने अपनी क्षुद्र राजनीति में कैद कर
दिया है।
अनेकानेक संदर्भों में केवल दो संदर्भों का
उल्लेख करना अत्यंत समीचीन होगा। गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी से टकराव के बाद, ब्रिटिश
प्रधानमंत्री से ‘पृथक चुनावी प्रवर्ग’ की प्राप्ति के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए अपने
जातिगत हितों को तिलांजलि देते हुए गांधी के साथ 1932 में पूना समझौता किया,
जिसने इस देश को विभीषिका एवं सामाजिक बिखराव से बचाया। दूसरा
उदाहरण उनके धर्म परिवर्तन संदर्भ में देखा जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की
कि वे जन्मना हिंदू हैं, परंतु हिंदू रूप में मृत्यु को
प्राप्त नहीं होंगे, यानी मत परिवर्तन करेंगे। उन्होंने 1936
में यह घोषणा की लेकिन 20 वर्षों का एक लंबा समय भारतीय हिंदू समाज को दिया कि वह
अपनी कमियों को दूर करें और दलित, शोषित समाज के साथ समत्व
और ममत्व का व्यवहार करें, जो संभव नहीं हुआ। अंतत: उन्होंने
भारतीय भूमि में ही प्रतीकात्मक विरोध से विकसित बौद्ध मत को स्वीकार किया।
वे
सदैव राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रोन्नति के लिए तत्पर और सन्नद्ध रहे। इसलिए उनके
भाषण के एक अंश का उल्लेख प्रासंगिक है, ”मैं यह स्वीकार करता हूं कि कुछ बातों
को लेकर सवर्ण हिन्दुओं से मेरा विवाद है परंतु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता
हूं कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।” राष्ट्र निर्माण ही बाबा साहेब का एकमात्र अभीष्ट था। इसलिए उन्होंने जहां
दलित, शोषित, वंचित समाज के उत्थान में
अपना सर्वस्व लगाया वहीं उन्होंने संविधान के माध्यम से सर्वोपयोगी सर्वसमावेशी,
ऐसे प्रावधान किए जिससे आज भारत समग्र दुनिया के सफलतम लोकतंत्र के
रूप में स्थापित है। एक संविधान विशेषज्ञ के रूप में उन्हें सदैव स्मरण किया जाता
रहेगा।
यह भी पढ़ें: ओपी राजभर और दारा सिंह चौहान का अखिलेश पर हमला, कहा- मुसलमान, ब्राह्मण-राजपूत अपराधी के एनकाउंटर चुप क्यों?
No comments:
Post a Comment