डॉ राहुल सिंह, निर्देशक, राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन वाराणसी की कलम से
हमारे गणतंत्र को 70 से अधिक वर्ष हो गये हैं. किसी भी व्यवस्था के परिपक्व होने और उसके स्थापित होने के लिए इतना समय काफी लंबा होता है. इतने लंबे समय के बाद जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो हमें इसकी मिली-जुली तस्वीर दिखायी देती है. जहां एक तरफ बहुत से संवैधानिक मूल्य, मान्यताओं को हमने पूरी तरह से अपने जीवन में उतार लिया है- जैसे हम सभी अपने राष्ट्र का सम्मान करते हैं, वहीं अनेक नियमों के पालन में अभी भी हम पीछे हैं.
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हम अक्सर अलग-अलग रूप में इसका उल्लंघन करते हुए पाये जाते हैं. इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं नागरिक होने का जो हमारा अधिकार है, वह तो हमें मालूम हैं, पर हमारी जिम्मेदारियां हमें मालूम नहीं हैं. असल में हमारी इस कमी का कारण हमारी शिक्षा है. हमें यह बताया ही नहीं जाता कि जिस तरह एक नागरिक होने के नाते हमारे कुछ अधिकार हैं, उसी प्रकार हमारे कुछ कर्तव्य भी हैं, जिन्हें पूरा करना हमारी जिम्मेदारी है. शिक्षा के माध्यम से हर व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में यह बात कूट-कूटकर भर देनी चाहिए कि हर व्यक्ति का समाज में सम्मान बराबर है, हर व्यक्ति बराबर है.
बराबरी का जो सबसे बड़ा अधिकार हमारे संविधान ने हमें दिया है, या यों कहें कि देश का हर नागरिक बराबर है, यह जो सबसे बड़ी शक्ति हमें मिली है, वह हमें दिखायी नहीं दे रही है. हमलोग भेदभाव, अलग-अलग रूप में असमानता की भावना, चाहे वह जाति को लेकर हो, धर्म को लेकर हो, या फिर पुरुष और महिला के बीच गैर-बराबरी को लेकर हो, इससे अभी भी ग्रसित हैं. जो बात सचमुच एक समाज को मजबूत संवैधानिक आधार देती है, वह यह कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को बराबरी का अधिकार हो ओर सभी के मन में ऐसी ही भावना हो. इस भाव को आत्मसात करने में हम चूक गये हैं. हमारे संविधान का जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है, वह यह कि प्रत्येक व्यक्ति को हर किसी की अस्मिता का सम्मान करना है. परंतु आज भी हम देखते हैं कि जातिवाद के चलते दलित, जनजातीय समुदाय और विशेषकर गरीब लोगों- भले ही वे देश के संविधान को स्वीकार करते हैं,
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खुद को उसी तरह देश का नागरिक मानते हैं, जैसा दूसरे लोग मानते हैं, उनके भीतर भी देशभक्ति है, राष्ट्रवाद है- को सम्मान देने की बात समाज अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है. वह यह मान ही नहीं रहा है कि उनकी अस्मिता का सम्मान भी संवैधानिक अधिकारों के दायरे में ही आता है. यहां एक और महत्वपूर्ण बात है कि धर्म और राष्ट्र सत्ता का जो अलगाव होना चाहिए था, वह दिखायी नहीं देता है. धर्म को बार-बार बीच में लाकर लोगों के बीच दूरियां बनायी जा रही हैं. इस कारण देश में धार्मिक आधार पर विभाजन हो रहा है. यह बहुत ही चिंता का विषय है और यह संविधान की मूल भावना को चोट पहुंचा रहा है. इसलिए आनेवाले समय में संविधान द्वारा प्रदत्त इन दो अधिकारों को पूरी तरह स्थापित करने का प्रयास सरकार को, समाज को और आम जनता को करना चाहिए. इस समय देश के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय महिलाओं के साथ हो रहा भेदभाव और हिंसा है. विशेषकर छोटी-छोटी बच्चियों के साथ हो रही बलात्कार व अन्य जघन्य घटनाएं बेहद चिंतित करने वाली है. इससे लगता है कि कहीं न कहीं महिलाएं आज भी भारतीय समाज में द्वय नागरिक हैं. उनको अभी भी प्रथम या समान नागरिकता नहीं मिल पायी है.
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आज भी वो भोग की वस्तु ही मानी जा रही हैं. इस मानसिकता में बदलाव लाने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों, सरकार और अगुवा संगठनों की थी, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाये. महिलाओं को समान अधिकार देने और संविधान की मूल आत्मा को स्थापित करने में हम पूरी तरह विफल रहे हैं. भले ही शिक्षा के मामले में थोड़ा सुधार हुआ है, लड़कियों का स्कूलों में नामांकन हुआ है और ड्राॅपआउट रेट संभल पाया है, पर अन्य कई मामलों में तो भेदभाव साफ दिख रहा है. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि लड़कियों से तो उनके जन्म लेने का अधिकार भी छीना गया है, छीना जा रहा है और अभी भी उसमें खास सुधार नहीं हुआ है. संविधान में जिस समानता की बात कही गयी है, उसके अनुसार महिलाओं को समान अधिकार देकर पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा करना था, वह आज भी दिखायी नहीं देती है. महिलाओं के साथ हद से ज्यादा भेदभाव हुआ है और हो रहा है. उन्हें कानून द्वारा जो बहुत से अधिकार मिले हैं, समाज उसकी अवहेलना कर रहा है. इसे लेकर हमारी कानून लागू करने वाली एजेंसी और न्याय देनेवाली प्रणाली को जिस तरह का कड़ा रुख अपनाना चाहिए, वैसा दिखायी नहीं देता है. देश जानता है कि कितने हो-हल्ले के बाद निर्भया के अपराधियों को फांसी मिली.
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लेकिन इस तरह के अपराध आज भी हर रोज हो रहे हैं, उसमें कहां किसी को सजा हो पा रही है. इससे पता चलता है कि हमारे समाज में, देश में महिलाओं को बराबरी मिलने में अभी लंबा समय लगेगा. लगता है जैसे अभी सौ गणतंत्र दिवस और आयेंगे, तब जाकर महिलाओं को संविधान प्रदत्त बराबरी का अधिकार मिल पायेगा. जहां तक हमारे गणतंत्र के भविष्य का प्रश्न है. तो मेरी दृष्टि से उसे ऐसा होना चाहिए जहां हर व्यक्ति को समान नागरिकता, सुरक्षा व सम्मान मिले और सभी के पास आजीविका के साधन हों. तभी माना जायेगा कि हमें वास्तव में सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए हैं. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की मूल भावना थी कि दलित, पिछड़े, गरीब, व महिलाओं को सामने लाया जाये, उन्हें सशक्त बनाया जाये, वह अभी तक नहीं हो पाया है. संविधान में वर्णित जिन मौलिक अधिकारों व कर्तव्यों को लागू करने में हम विफल हुए हैं.
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उसमें सुधार के लिए सरकार को और उसमे शामिल लोगों को वर्षों से हाशिए पर रह रहे समुदाय, वर्ग, जाति को सशक्त बनाने की भावना से कार्य करना होगा. शासन-प्रशासन मिलकर जब इस भावना से कार्य करेंगे और समाज के लोग इस भावना को आत्मसात करेंगे तभी हम संविधान की मूल आत्मा स्थापित कर पायेंगे. यह महज आदर्शवादी बात नहीं, बल्कि व्यावहारिक भी है. दुनिया के जो भी देश सफल, संपन्न और विकसित हैं, उन्होंने अपने यहां पूरी तरह अपने संविधान को लागू किया हुआ है. अंत में, संविधान को तभी पूरी तरह से लागू किया हुआ माना जायेगा जब देश की महिलाओं के बराबरी के अधिकार को स्वीकार किया जायेगा और उनके सम्मान, सुरक्षा और आजीविका के साधनों की रक्षा होगी. देश का प्रत्येक व्यक्ति बराबर माना जायेगा और वह सम्मान से सिर उठाकर चल सकेगा.
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