डॉ राहुल सिंह निर्देशक राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन वाराणसी की कलम से
इलेक्टोरल बॉन्ड इसलिए लाए गए थे ताकि भारत के सियासी दलों के पैसे जुटाने के संदेहास्पद तौर-तरीक़ों में सुधार लाया जा सके. मगर हुआ इसके उलट. आज चुनावी बॉन्ड को 'लोकतंत्र से खिलवाड़ करने वाला' बताकर इसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है. लगभग दो साल बाद, अब सुप्रीम कोर्ट शक के घेरे में आ चुके इलेक्टोरल बॉन्ड्स पर दोबारा सुनवाई शुरू करने वाला है. ये इलेक्टोरल बॉन्ड सियासी दलों को चंदा देने का ऐसा ज़रिया हैं जिन पर ब्याज नहीं मिलता.
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भारत में चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड 2018 में लाए गए थे. ये बॉन्ड तयशुदा समय के लिए जारी किए जाते हैं जिन पर ब्याज नहीं मिलता. ये बॉन्ड एक हज़ार रुपए से लेकर एक करोड़ रुपए तक की तय रक़म की शक्ल में जारी किए जा सकते हैं. इन्हें साल में एक बार तय समय-सीमा के भीतर कुछ ख़ास सरकारी बैंकों से ख़रीदा जा सकता है. भारत के आम नागरिकों और कंपनियों को ये इजाज़त है कि वो ये बॉन्ड ख़रीदकर सियासी पार्टियों को चंदे के रूप में दे सकते हैं. दान मिलने के 15 दिन के अंदर राजनीतिक दलों को इन्हें भुनाना होता है. इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए केवल वही सियासी दल चंदा हासिल करने के हक़दार हैं जो रजिस्टर्ड हैं और जिन्होंने पिछले संसदीय या विधानसभाओं के चुनाव में कम से कम एक फ़ीसद वोट हासिल किया हो.
सरकार के मुताबिक़, जारी होने के बाद से अब तक, 19 किस्तों में 1.15 अरब डॉलर क़ीमत के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे जा चुके हैं. ऐसा लगता है कि इसका सबसे अधिक फ़ायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हुआ है. 2019 से 2021 के दौरान, बीजेपी को कुल जारी हुए बॉन्ड के दो तिहाई हिस्से दान में मिले. इसकी तुलना में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को महज़ 9 प्रतिशत बॉन्ड ही मिले. भारत में चुनावों और सियासी दलों पर नज़र रखने वाली संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (ADR) के मुताबिक़, 2019 से 2021 के दौरान सात राष्ट्रीय पार्टियों की 62 प्रतिशत से ज़्यादा आमदनी इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले चंदे से हुई थी.
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राजनीतिक दलों को मिला चंदा:
भारत में इलेक्टोरल बॉन्ड इसलिए लाए गए थे ताकि सियासी चंदे में काले धन के लेन-देन का ख़ात्मा करके, राजनीतिक दलों के रक़म जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सके. हालांकि आलोचकों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का असर इसके उलट हुआ है. बॉन्ड के ज़रिए चंदे पर रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है. पहली बात तो ये है कि इस बात का कोई सार्वजनिक रिकॉर्ड नहीं है कि प्रत्येक बॉन्ड को किसने ख़रीदा और उसे किसे दान दिया गया. एडीआर का कहना है कि इस वजह से इलेक्टोरल बॉन्ड 'असंवैधानिक और अवैध' हो जाते हैं क्योंकि देश के करदाताओं को दान के स्रोत की जानकारी ही नहीं होती है.
इसके अलावा, आलोचक कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड पूरी तरह से अनाम भी नहीं होते क्योंकि सरकारी बैंकों के पास इस बात का पूरा रिकॉर्ड होता है कि बॉन्ड किसने ख़रीदा और किस पार्टी को दान में दिया. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी बड़ी आसानी से ये जानकारी जुटा सकती है और फिर इसका 'इस्तेमाल' दान देने वालों को प्रभावित कर सकता है. एडीआर के सह-संस्थापक जगदीप छोकर कहते हैं कि, 'इस तरह से इलेक्टोरल बॉन्ड, सत्ताधारी पार्टी को अनुचित फ़ायदा पहुंचाने वाले होते हैं.'
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इलेक्टोरल बॉन्ड लाने का एलान किया गया था तो भारत के चुनाव आयोग ने कहा था कि इससे 'चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर बुरा असर पड़ेगा'. तब रिज़र्व बैंक, क़ानून मंत्रालय और कई सांसदों ने दावा किया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड सियासी दलों में काले धन की आमद-ओ-रफ़्त को रोकने में कामयाब नहीं होंगे. (हालांकि, एक साल बाद चुनाव आयोग अपने पुराने रुख़ से पलट गया था और उसने इलेक्टोरल बॉन्ड का समर्थन किया था.) अदालतें भी इलेक्टोरल बॉन्ड पर फ़ैसले को अब तक टालती आई हैं.
वॉशिंगटन स्थित थिंक टैंक, कार्नेगी एन्डोवमेंट फ़ॉर इंटरनेशनल पीस के मिलन वैष्णव कहते हैं कि, 'असल में इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए सरकार ने चुनावी चंदे के घाल-मेल को क़ानूनी जामा पहना दिया है.' मिलन वैष्णव आगे ये कहते हैं, 'चंदा देने वाले किसी भी रक़म का बॉन्ड ख़रीदकर, सियासी दलों को दे सकते हैं, और कोई भी पक्ष इस लेन-देन को सार्वजनिक करने के लिए बाध्य नहीं है. अगर पर्दे के पीछे किए जाने वाले इस गोपनीय लेन-देन को आप पारदर्शिता बताकर ढोल पीट रहे हैं तो ज़ाहिर है कि ये तो पारदर्शिता की एकदम नई परिभाषा है, जो अब तक तो नहीं सुनी गई थी.'
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत में राजनीतिक चंदा जुटाने की प्रक्रिया में सुधार लाकर, इसे और पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है. भारत में चुनाव लड़ना बहुत महंगा सौदा होता है और इसका ज़्यादातर ख़र्च निजी चंदे से पूरा किया जाता है. 2019 के आम चुनाव के बारे में कहा जाता है कि इसमें 7 अरब डॉलर की रक़म ख़र्च की गई थी जो केवल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में ख़र्च की गई रक़म से कम है.
भारत में वोटर की तादाद लगातार बढ़ रही है. 1952 में हुए पहले आम चुनाव में देश में चार लाख से भी कम मतदाता थे जो 2019 के आम चुनाव में बढ़कर 90 करोड़ से भी ज़्यादा हो गए. वोटर की इतनी बड़ी संख्या तक पहुंच बनाने, उसे अपने हक़ में प्रभावित करने के लिए उम्मीदवारों को ज़्यादा रक़म ख़र्च करनी पड़ती है. भारत में प्रशासन की तीन स्तरीय व्यवस्था- गांव, राज्य और केंद्र- होने का मतलब है कि चुनावों की संख्या भी बढ़ गई है. हर चुनावी मुक़ाबला बेहद कड़ा हो गया है. सियासी दल, हर साल अपनी आमदनी और ख़र्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं. उनकी आमदनी का 70 फ़ीसद से ज़्यादा हिस्सा 'अज्ञात स्रोतों' से दिखाया जाता है. एडीआर का कहना है कि इन 'अज्ञात स्रोतों' में एक बड़ी हिस्सेदारी इलेक्टोरल बॉन्ड की होती है. वहीं, मिलन वैष्णव कहते हैं कि, 'चुनावी बॉन्ड ने भारत में राजनीतिक चंदों के सुधार की प्रक्रिया को कई दशक पीछे धकेल दिया है.'
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हालांकि, अन्य लोग इन बातों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं. मसलन, बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बैजयंत जय पांडा कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड, सियासी फंडिंग में पारदर्शिता लाने की दिशा में हुई ठोस प्रगति का प्रतीक हैं. पांडा ने कहा कि, 'पहले राजनीतिक दलों को मिलने वाली लगभग सारी की सारी रक़म नक़दी से भरे सूटकेस की शक्ल में मिलती थी. राजनीतिक दलों को इस तरह चंदा देने वालों में से कई के किरदार तो बेहद दाग़दार होते थे.' जय पांडा ये भी कहते हैं कि, 'इसमें कोई दो राय नहीं कि सियासी चंदे के लेन-देन की प्रक्रिया में और सुधार लाने और पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है. लेकिन, इलेक्टोरल बॉन्ड बिल्कुल वैध हैं और पारदर्शिता के कई मानकों पर खरे उतरते हैं'.
मिलन वैष्णव के मुताबिक़, इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीतिक चंदा देने की व्यवस्था में सुधार लाने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि बॉन्ड से चंदे की व्यवस्था तो जारी रहे, लेकिन 'ऐसा तभी हो जब सभी पक्ष इस मामले मे 100 फ़ीसद पारदर्शिता अपनाएं'. वैष्णव के मुताबिक़, 'इससे राजनीतिक चंदे के सबसे स्याह पक्ष' का तो ख़ात्मा हो जाएगा. लेकिन ऐसे कई और पक्ष हैं जिनमें सुधार किए जाने की ज़रूरत होगी. मिलन वैष्णव कहते हैं कि एक सुधार ये भी हो सकता है कि चंदा देने वाले अपनी वैध आमदनी से (वो कमाई जो वैध तरीक़ों से हुई हो और जिस पर ईमानदारी से टैक्स भी चुकाया गया हो) बॉन्ड ख़रीदे और इसे काले धन की ख़रीदारी करने वाले किसी तीसरे पक्ष (वो धन जो अवैध तरीक़े से कमाया गया हो और जिस पर टैक्स न चुकाया गया हो) को दे दे. फिर ये तीसरा पक्ष, बॉन्ड को एक राजनीतिक दल के हवाले कर दे. साफ़ है कि भारत में राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था में सुधार की राह बेहद लंबी और तक़लीफ़देह है.
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