डॉ राहुल सिंह, निर्देशक, राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन, वाराणसी की कलम से
आज भारत विकास के मार्ग पर एक यात्रा पर अग्रसर है। भारत के लिए अगले साल में क्या कुछ होने वाला है, इस सवाल पर विचार इससे भी जुड़ा है कि हम भारत के लिए क्या चाहते हैं और उभरती परिस्थितियों में क्या कुछ संभव है? इस सिलसिले में यह भी याद रखना जरूरी है कि आज की दुनिया में परस्पर निर्भरता एक अनिवार्य नियति बनती जा रही है। हम सबने देखा कि चीन के वुहान से निकले कोरोना वायरस ने विश्व को एक ऐसी महामारी की चपेट में ले लिया, जिससे लाखों लोगों के जीवन की हानि हुई और भारी आर्थिक नुकसान हुआ। ऐसे ही यूक्रेन और रूस के बीच चल रहा युद्ध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पूरे संसार में आर्थिक कठिनाई बढ़ा रहा है।
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इस बीच भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय पहल की और उसकी साख में वृद्धि हुई। सुरक्षा परिषद और जी-20 समूह की अध्यक्षता के साथ भारत की वैश्विक उपस्थिति निश्चित ही फलदायी होगी। पड़ोसी देशों के हालात संतोषजनक नहीं है और बहुत जल्द सुधार की आशा भी नहीं दिखती। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में आर्थिक संकट गहराते दिख रहे हैं। चीन का रुख भी सहयोग की जगह मुश्किलें पैदा करने वाला ही है। पड़ोसी देशों की यह स्थिति भारत के लिए सजग और सतर्क राजनय और सामरिक तत्पारता की जरूरत को रेखांकित करती है।
भारत का आधुनिक लोकतंत्र 75 सालों की यात्रा के बाद अब अंग्रेजी राज के उपनिवेश की विकट छाया से मुक्ति की कोशिश में लगा है। उसकी आहट शिक्षा की संरचना, विषयवस्तु और प्रक्रिया में बदलाव में दिखने लगी है। परिवर्तन की अस्त-व्यस्तताओं के साथ शैक्षिक ढांचे को पुनर्व्यवस्थित करने के लिए राज्यों और केंद्र में कई स्तरों पर गहन तैयारी की जरूरत है। शैक्षिक-मूल्यांकन, शैक्षिक-संरचना आदि के मोर्चों पर आगे बढ़ने के लिए आर्थिक निवेश जरूरी होगा, ताकि आवश्यक अवसंरचना स्थापित और संचालित हो सके।
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भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ जुड़ाव को आगे बढ़ाना और मातृभाषा में पढ़ाई के साथ डिजिटलीकरण की दिशा में सावधानी से आगे बढ़ना होगा। आज ‘हाइब्रिड’ प्रणाली तेजी से लोकप्रिय हो रही है। आनलाइन शिक्षा पूरक और विकल्प दोनों ही रूपों में अपनाई जा रही है। इसके चलते विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के कौशलों और दक्षताओं को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत पड़ रही है। इन दृष्टियों से यह साल बड़ा ही निर्णायक सिद्ध होगा।
भारत अभी भी एक कृषि प्रधान देश है और गांवों की परिस्थितियां देश के लिए महत्वपूर्ण हैं और उनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। खाद्यान्न उत्पादन में विविधता की दृष्टि से मोटे अनाज, तिलहन तथा दलहन को बढ़ावा देने के उपक्रम और तेज होंगे। किसानों के पिछले आंदोलन की दुखद स्मृति अभी भी बनी हुई है। खाद, बीज, सिंचाई की व्यवस्था और बाजार से जुड़ी नीतियों पर संवेदना के साथ विचार जरूरी है। आशा है बिना भूले उन मुद्दों के समाधान की राह निकलेगी। पेस्टीसाइड के घातक प्रभावों को देखते हुए देसी बीज और जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दूध, फलों और सब्जियों के उत्पादन में वृद्धि जरूरी है।
स्वास्थ्य की चुनौती विकराल हो रही है। पर्यावरण प्रदूषण, भोज्य पदार्थ में मिलावट, मंहगी दवाएं, अस्पतालों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का बाजारीकरण स्वास्थ्य को आम आदमी की पहुंच से दूर कर रहा है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में नैतिकता एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। टेलीमेडिसिन की सेवाओं का विस्तार तेजी से किया जाना चाहिए। देश की जनसंख्या को देखते हुए चिकित्सकों की संख्या अपर्याप्त है। इसलिए स्तरीय स्वास्थ्य-शिक्षा के विस्तार पर वरीयता के साथ काम करना जरूरी होगा। कोविड की लड़ाई में देश की उपलब्धि सराहनीय थी और उससे उबर कर देश का आर्थिक विकास पटरी पर आ रहा है। कोविड की नई दस्तक पर सजगता जरूरी होगी।
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मीडिया और खास तौर पर इलेक्ट्रानिक और सोशल नेटवर्क साइट्स का जिस तरह का कल्पनातीत विस्तार हुआ है, उसने लोगों की मानसिकता, आचरण और वैचारिक परिपक्वता सबको हिला दिया है। उसकी प्रभाव-क्षमता रोचक सामग्री, तीव्र गति और इंटेरैक्टिव होने के कारण बहुत बढ़ गई है। संवाद और संचार की दुनिया पर इस तरह का कब्जा जमाकर समाज का मन-मस्तिष्क कब्जे में लेने की यह कोशिश न केवल नए सामाजिक वर्ग और भेद बना रही है, बल्कि मनुष्यता का भी मशीनीकरण करती जा रही है। उसका विवेक, उसकी सामाजिकता और आत्मबोध सबको समेटते और ध्वस्त करते हुए यह प्रौद्योगिकी निजी और सामाजिक रिश्ते-नातों को खंडित करती जा रही है। इसके दुरुपयोग के चलते मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना कठिन हो रहा है। इसे नियमित करने की व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है।
न्याय का क्षेत्र एक दुखती रग है। इधर अभी तक व्यवस्थित रूप से ध्यान नहीं दिया जा सका है। न्यायाधीशों की कमी और करोड़ों की संख्या में प्रतीक्षारत मुकदमे ऐसे तथ्य हैं, जिनकी उपेक्षा घातक हो रही है। न्याय व्यवस्था को औपनिवेशक आधारभूमि से अभी पूरी तरह से निजात नहीं मिल सकी है। सस्ता, शीघ्र और संतोषप्रद न्याय पाना अभी भी टेढ़ी खीर है। इसी तरह भ्रष्टाचारमुक्त, पारदर्शी शासन या सुशासन स्थापित करना अभी भी अधूरा सपना है। बढ़ते आर्थिक अपराध, पद और अधिकार का दुरुपयोग, संस्थाओं की स्वायत्तता का नाश और राजनीति में अनपढ़, धनी, वंशवाद और अपराधी लोगों का बढ़ता वर्चस्व ऐसी स्थितियों को बना रहे हैं जो आम जनों के मन में राज्यव्यवस्था के प्रति संदेह पैदा करती हैं।
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बाजार, वैश्वीकरण और व्यक्ति के निजी सुख की बेतहाशा बढ़ती चाहत ने सामाजिकता को हाशिए पर भेजने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजनीतिक दलों में वैचारिकता और अनुशासन की गहराती कमी चिंताजनक होती जा रही है। यह दुखद है जाति, आरक्षण, भाषा, शिक्षा और मजहब से जुड़े मुद्दे अक्सर अल्पकालिक राजनीतिक स्वार्थ के चलते सद्भाव के साथ नहीं सुलझाए जाते। आज देश-सेवा के मूल्य को पुनः प्रतिष्ठित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। निजी लाभ और समाज कल्याण के बीच द्वंद्व की जगह उनकी परस्परपूरकता को पहचानने की जरूरत है। अमृत-काल हमसे पुण्यकारी संकल्प की मांग करता है और यह अवसर देता है कि अपने मनोदेश में हम भारत को स्थान दें। यदि भारत हमारा है तो हमें भी भारत का होना चाहिए। भारत की समृद्धि से ही सभी समृद्ध होंगे।
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