डॉ राहुल सिंह निर्देशक राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन वाराणसी की कलम से
शिक्षा सीखने की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य के आंतरिक ज्ञान, गुणों, शक्तियों तथा क्षमताओं का उद्घाटन होने के साथ-साथ उसे अनेक प्रकार के बाह्य ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसके व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास होता है तथा संपूर्ण मानव समाज के पारिवारिक, बौद्धिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास को भी एक दिशा मिलती है। बेशक कोई भी शिशु जब सृष्टि में प्रवेश करता है तो वह नैसर्गिक क्षमताओं से युक्त एक मासपिण्ड होता है जैसे-जैसे वह बड़ा होता है सामाजिक संस्थाओं के द्वारा सीखने की प्रक्रिया से गुजरते हुए सामाजिक नागरिक के रूप में उसका विकास होता है। शिक्षा की यह प्रक्रिया 'जो कुछ है. और 'जो होना चाहिए की स्थितियों के बीच अपना काम करती है। बच्चों को शिक्षा देकर उनके व्यक्तिव का विकास करने की प्रक्रिया का आयोजन अलग-अलग समाजों द्वारा अपने यहां की परंपराओं, स्थितियों और मान्यताओं के अनुसार कई प्रकार की धार्मिक सामाजिक औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इस प्रकार शिक्षा व्यक्ति को प्राकृतिक और सामाजिक परिस्थितयों के साथ समायोजन करने, उनके साथ अन्तर्किया करने के योग्य बनाकर उसका समाजीकरण करती है। शिक्षा व्यक्ति को आदर्श स्थितियों का परिचय देकर उसके सामने कुछ महत् उद्देश्यों को रखती है। उसके मन में कुछ प्राप्त करने की, प्रतिष्ठित तथा संपन्न होने की लालसा पैदा करती है। शिक्षा वास्तव में ज्ञान का ही एक रूप है, जिसका चरम लक्ष्य मानव का बहुमुखी विकास करके उसे पशु के स्तर से उठाकर मानव के स्तर तक ले जाना होता है।
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शिक्षा और समाज:
मनुष्य की संगठन बनाकर रहने की प्रवृत्ति ने समाज का निर्माण किया है। मानव-समाज अनेक प्रकार की संस्थाओं के द्वारा संचालित होता है जैसे परिवार, समुदाय, विद्यालय, देवालय आदि। अपने-अपने समाज के रीति-रिवाज, परम्पराओं, मूल्यों तथा नैतिक मान्यताओं को अपनाने के कारण व्यक्ति की किसी समाज-विशेष के नागरिक के रूप में पहचान बनती है। संसार के प्रत्येक देश की सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था की कार्य सूची में बच्चों को शिक्षित करके समाज के अच्छे नागरिक बनाने की नीति शामिल होती है। समाज की जो औपचारिक संस्थाएं ये काम करती हैं इन्हें शिक्षालय, विद्यालय, सिखलाई केन्द्र, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी आदि नाम दिए जाते हैं। समाज के अनौपचारिक शिक्षा संस्थानों में परिवार तथा मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे और स्थानक और अन्य प्रकार के धार्मिक संगठनों की गणना की जाती है। व्यवस्था द्वारा स्थापित औपचारिक संस्थाएं बच्चों को विशिष्ट प्रकार की शिक्षा देकर किसी विशेष प्रकार के कार्य तथा व्यवसाय के लिए तैयार करती हैं ताकि वे बड़े होकर जीविकोपार्जन के लिए सक्षम हो सकें। समाज की अनौपचारिक संस्थाएं व्यक्ति के व्यवकार को अनैतिक होने से रोकने के लिए प्रयत्नशील होती हैं। व्यक्ति को शिक्षित करने का कर्तव्य निभाने वाली दोनों प्रकार की संस्थाएं उसे जीतन का व्यवहारिक ज्ञान भी देती हैं जिसका उसके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान होता है। ये संस्थाएं व्यक्ति के माध्यम से सामाजिक परंपराओं, मूल्यों तथा नैतिक मान्यताओं को अगली पीढ़ियों तक पहुंचाती हैं और संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती हैं। इसके साथ-साथ शिक्षा नए-नए अन्वेषणों का साधन बनती हुई सामाजिक, धार्मिक तथा नैतिक धारणाओं में परिवर्तन का कारक भी बनती हैं। ज्ञान के रूप में शिक्षा नए विचारों के लिए भावभूमि तैयार करती है और समाज को गतिशील बनाए रखती है।
भारतीय समाज और शिक्षा:
भारतीय समाज संसार के अन्य देशों की अपेक्षा कुछ अलग और पुराना है। भारत एक विशाल उपमहाद्वीप है, यहां का समाज संस्थाओं, समूहों और सांस्कृतिक विशेषताओं की व्यवस्था है, जिन्हें इसके अंतगर्त आने वाले सभी भाषाई प्रांत समान रूप साथ से स्वीकार करते हैं। भारत के लोगों में धर्म की महत्ता है और दूसरों के विचारों को समाहित करने का धैर्य है। यहां परिवार नामक संस्था का बहुत महत्व है और संतान से यह उम्मीद की जाती है कि वह पूर्वजों के पदचिन्हों पर चले तथा अपने व्यक्तित्व को परिवार और समाज की मान्यताओं के अनुसार ढाले। प्राचीन काल में यहां सौपानिक व्यवस्था थी, जाति प्रथा का महत्व था तथा लोग रोजगार के लिए पैतृक व्यवसायों पर निर्भर रहते थे। आधारभूत भारतीय व्यवस्था में व्यक्ति को निजी आवश्यकताओं तथा पक्षपात के प्रकाश में नहीं बल्कि सामूहिक मर्यादा के आधार पर सोचने के लिए प्रेरित किया जाता है। अनुशासन की भावना, विद्या और साधना के प्रति लगाव, परमात्मा में दृढ़ विश्वास और भाईचारे की भावना भारतीय समाज की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं। भारत में प्राचीन काल से स्थापित शिक्षा प्रणाली भारतीय समाज की इन्हीं आधारभूत विशेषताओं का ही प्रतिनिधत्व करती थी।
यदि संर्पूण विश्व में शिक्षा-व्यवस्था संबंधी मान्यताओं पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि कुछ समाजों में शिक्षा की प्रत्येक गतिविधि को धार्मिक आदर्शों से आंका गया और कुछ अन्य समाजों में राजनीतिक अथवा आर्थिक आदर्शों से लेकिन भारतीय शिक्षा-दर्शन की प्रक्रिया में जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया गया है। भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस जीवन की प्रकृति पूर्व जन्म और आने वाले जन्म दोनों की स्थितियों से जुड़ी हुई है। इस आधार पर जीवन के तीन स्वरूप-शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक माने गए हैं। यहां के आचार्यों द्वारा जीवन का व्यावहारिक विश्लेषण करते हुए व्यक्ति के जीवन को नियमबद्ध योजना में बांधते हुए चार आश्रमों में विभाजित कर दिया गया- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। व्यक्ति के इस जीवन का सम्बन्ध पिछले और आने वाले जन्म से जोड़ते हुए कर्मवाद के सिद्धान्त को प्रचलित किया गया। कर्मवाद का यह सिद्धान्त सामाजिक गत्यात्मकता को बढ़ावा देते हुए व्यक्ति के बाह्य आचरण और आंतरिक विचारों में संतुलन स्थापित करने में सहायक होता था। भारतीय शैक्षिक विचारधारा में आदर्शवदिता को भी महत्व दिया गया है।
भारतीय समाज की आधारभूत व्यवस्था में परिवार नामक संस्था को समाज की रीढ़ के रूप में स्वीकार किया जाता सकता है। यहां बड़े-बड़े संयुक्त परिवारों का प्रचलन था जिनमें कई पीढ़ियां तथा कई सम्बन्धों के लोग एक साथ रहते थे। परिवार में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान और कार्य परिवार के मुखिया द्वारा निर्धारित किया जाता था। परिवार की व्यवहार शैली का आधार वे आदर्श होते थे जिनकी धर्म के द्वारा पुष्टि की जाती थी। इस प्रकार भारतीय परिवारों में बच्चों को संस्कृति के व्यावहारिक पक्ष की शिक्षा सहज में ही मिल जाती थी। बच्चों को अच्छे व्यवहार की शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी बाहरी संस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। जीविकोपार्जन के लिए भी बच्चे पैतृक व्यवसाय को ही साधारणत: अपनाते थे, इसलिए वह शिक्षा भी उन्हें परिवार में ही मिल जाती थी। भारतीय जन-साधारण का प्रमुख कार्य कृषि था, जो बच्चे अपने आप ही सीख जाते थे। इस प्रकार प्राचीन भारत में शिक्षा का तात्पर्य ज्ञान प्राप्ति ही होता था और यह ज्ञान प्राप्ति गुरुकुलों तथा आश्रमों में प्राप्त हो सकती थी। इन गुरुकुलों तथा आश्रमों में कुछ विशिष्ट वर्ग के लोग ही ज्ञान प्राप्ति के लिए जाया करते थे। सामान्य परिवारों के बच्चों को इनमें न तो प्रवेश ही मिलता था और न ही उन्हें ऐसी आवश्यकता ही होती थी। इतिहास तथा पौराणिक कथाओं में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि सामान्य परिवारों अथवा निम्न वर्ग के परिवारों को गुरुओं ने शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया, इनमें से एक श्रेष्ठ उदाहरण गुरु द्रोणाचार्य और एकलव्य का है तथा दूसरा गुरु रामानंद और कबीर का। उन दिनों ज्ञान के स्वरूप और ज्ञान के वितरत का निश्चिय आदर्श की दृष्टि से होता था तथा श्रेष्ठ परिवारों से संबंध रखने वाले ज्ञान प्राप्ति के महत्वाकांक्षी विद्यार्थियों को आदर्श ज्ञान देने के लिए समाज तथा व्यवस्था के सरंक्षण में भारत के कई नगरों में प्रसिद्ध और विशाल शिक्षा केंद्र स्थापित थे जैसे, नालन्दा, उज्जैन, काशी, तक्षशिला, पाटलिपुत्र आदि।
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भारत में विदेशी शासन और शिक्षा का बदलता स्वरूप:
जैसे कि मान्यता है कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है, इसी नियम के अधीन समय ने भारतीय समाज को भी परिवर्तन की दिशा में अग्रसर किया। पहले यहां इस्लाम और फिर अंग्रेसी शासन की स्थापना हुई। इस्लामी शासन के अंतर्गत जहां हमारे धार्मिक-सामाजिक विश्वासों में अधिक संकीर्णता आई वहीं अंग्रेजी शासन के प्रभावस्वरूप हमारे समाज को आदर्श व्यवस्था में बांधकर रखने वाले इन विश्वासों की शक्ति कमजोर होने लगी। समाज में होने वाले इन परिवर्तनों ने शिक्षा को भी प्रभावित किया। मध्यकाल में जहां ऐसी स्थितियां बनी है कि शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए न होकर राजाश्रय की आकांक्षा के साथ जुड़ने लगी वहीं अंग्रेसी शासन के अंतर्गत एक नई प्रकार की शिक्षा पद्धति का आरम्भ हुआ। उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक को आधुनिक शिक्षा के आरम्भ के दशक के रूप जाना जाता है।
अंग्रेजों ने अपने शासन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए तथा भारत के सभ्रांत वर्ग में अंग्रेजी संस्कृति का प्रचार करने के लिए ऐसी शिक्षा नीति बनाई जिसमें अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य विषय के रूप में अपनाया गया। उस समय में अंग्रेजी सभ्यता, संस्कृति तथा भाषा के प्रचार स्वरूप हमारे देश की सामाजिक स्थितियों में भी परिवर्तन की बयार बहनें लगी थी। अंग्रेजी शासन ने जहां भारत की शिक्षा नीति में बदलाव किया वहीं वैज्ञानिक अन्वेषणों का लाभ देते हुए यहां डाक तार, रेलवे, छापाखाना आदि की व्यवस्था भी की। अंग्रेजी शासन के प्रयत्नों का प्रभाव यह हुआ कि अब शिक्षा की पहुंच समाज के केवल प्रमुख वर्ग तक ही सीमित नहीं रही बल्कि उसका व्यापक प्रसार हुआ। अब शिक्षण संस्थानों में पहुंचने वाले लड़कों की संख्या ही नहीं बढ़ी बल्कि लड़कियों के लिए भी शिक्षा की अनिवार्यता अनुभव की जाने लगी। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के तीन मुख्य आधार थे- धर्म, दर्शन और नीतिशास्त्र। अब आधुनिक काल में राजनीति तथा समाज भी प्रयत्क्ष रूप में इनमें शामिल हो गए।
आधुनिक काल में परिवर्तन तथा सामान्य जन की पहुंच में आई शिक्षा ने कुछ ऐसे प्रबुद्ध विद्वान समाज को दिए जिन्होंने पुरानी परम्पराओं को ज्यों का त्यों स्वीकर करने की बजाय यथार्थ का विश्लेषण करके सामाजिक संकीर्णता के विरुद्ध वातावरण तैयाार किया तथा उदारवादी ढंग की सोच का विकास किया। राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी जैसे चेतन विद्वानों के प्रयत्नों का परिणाम हुआ कि अब देश की सामाजिक राजनीतिक स्थितियों के प्रति लोगों में चेतना पैदा हुई और समाज की जड़ता पर प्रहार हुए। समाजवाद, प्रजातंत्र तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता के विचारों ने जनता को प्रभावित किया। सन 1947 में भारत अंग्रेजी प्रभुत्व से स्वतंत्र हुआ परंतु अंग्रेजों के अधीन जिस ढंग की शिक्षा का आरंभ हो चुका था, उसको छोड़कर अब पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं था। अब तो वैसे भी संपूर्ण विश्व में स्थितियां बदल रही थीं, विश्व के सभी देश वैज्ञानिक प्रगति के फलस्वरूप इस स्थिति में आ गए थे कि एक-दूसरे से निकट संपर्क स्थापित करने लगे थे।
सन 1947 के बाद से लेकर अब तक भारत की भी सामाजिक राजनीतिक स्थितियों में बहुत परिवर्तन आ गया है। भारतीय शिक्षा आयोग (1966) के अनुसार यह स्वीकार किया गया है कि राजनीति, अर्थनीति और समाजनीति शिक्षा पर प्रभाव डालती है और शिक्षा के द्वारा प्रभावित भी होती है। इसी के फलस्वरूप शिक्षा के प्राचीन सिद्धांतों में संशोधन हुआ तथा नए सिद्धांतों को स्वीकृति मिली। आज की भारतीय शिक्षा पद्धति में प्रमुख रूप से जो परिवर्तन देखने को मिलते हैं उनमें सीखने की प्रक्रिया में सामाजिक संस्थाओं का महत्व कम होकर औपचारिक संस्थाओं अर्थात स्कूलों, कॉलेजों का महत्व बढ़ गया है। आज शिक्षा का स्वरूप भी बदल गया है। आज की शिक्षा व्यक्ति को इस योग्य बनाने के लिए अधिक प्रयत्नशील है कि वह भौतिक प्रगति के मार्ग पर आगे से आगे बढ़ता चला जाए। इस अर्थ में आज शिक्षा अर्थ और उपयोगिता पर केंद्रित हो गई है।
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आधुनिक शिक्षा के सामाजिक सरोकार:
आज भारतीय व्यवस्था में जिस प्रकार शिक्षा का प्रसार हो गया है और जिस ढंग की शिक्षा का प्रचार हो रह है उसका हमारी सामाजिक व्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है इसका विश्लेषण समाज के लिए उपयोगी हो सकता है। हम यह तो जानते हैं कि अंग्रेजी शासन के समय में ही शिक्षा और शिक्षण अपने महत् आदर्श से च्युत होकर एक व्यावसाहिक क्रिया बन गई थी, ज्ञान मोल-भाव की वस्तु बन गया था तथा विद्यार्थी और अभिभावक क्रेता बन गए थे। शिक्षा की यही प्रवृत्तियाँ आज आधुनिक और उसके बाद उत्तर आधुनिक काल में निरंतर विकास की तरफ अग्रसर हैं। आज भारत में भूमंडलीकरण तथा वैश्वीकरण की आड़ में अंग्रेजी पद्धति की शिक्षण संस्थाओं की भरमार हो रही है जिनमें अंग्रेजी भाषा केवल एक विषय के रूप में ही नहीं पढ़ाई जाती बल्कि शिक्षा का माध्यम ही अंग्रेजी भाषा को बनाया जाता है। ऐसी संस्थाओं में हमारी अपनी भाषाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है तथा यहां भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के ज्ञान को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना विदेशी सभ्यता और संस्कति को। आज हमारे देश के विद्यार्थी अपने देश के महान संतों यथा कबीर, गुरुनानक, गुरु गोबिंद सिंह आदि के त्याग और बलिदान के सम्बंध में उतना नहीं जानते जितना संत वैलेंटाइन आदि के सम्बंध में जानते हैं। उन शिक्षण संस्थाओं के नाम भी या तो इसाई संतों के नाम पर रखे जाते हैं अथवा हमारे संतों के नामों का अंग्रेजीकरण कर दिया जाता है। जैसे संत कबीर की जगह सेंट कबीर, लॉर्ड कृष्णा। इन शिक्षण संस्थाओं का प्रभाव है कि हमारे देश के युवा वर्ग का व्यवहार, विचार, वेशभूषा, बोलचाल पूरी तरह विदेशी संस्कृति से प्रभावित है। इन शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऊंचे दाम लगते हैं तथा इनकी यह भी विशेषता है कि उनमें से कई संस्थाओं में भारतीय त्यौहारों यथा होली, दीवाली, जनमाष्टमी, वैशाखी आदि की छुट्टियां नहीं होती है। आज की संचार क्रांति, बाजारवादी धारणा तथा उपभोगवादी संस्कृति ने शिक्षा की इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दिया है। आज माता-पिता की सेवा और उनके सम्मान को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना मदर्स-डे, फादर्स-डे को दिया जाता है। शिक्षा का एक महत् व्यक्ति का समाजीकरण है परंतु आज हम देखते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति और समाज से कटकर धरती की तरह विश्व परिक्रमा करते हुए स्व की धुरी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि आज की शिक्षा विद्यार्थियों को ऐसा वातावरण प्रदान नहीं कर पा रही है कि वे अपने देश के सामाजिक, नैतिक मूल्यों तथा मान्यताओं के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें बल्कि यह उन्हें अपनी संस्कृति से विमुख करके सफल समाजिक नागरिक बनाने की बजाए प्रतिष्ठित और सम्पन्न नागरिक बनाने का प्रयत्न कर रही है। आज की स्थितियों में समाज की प्रमुख संस्था परिवार जो बच्चे के समाजीकरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी का सम्बंध भी शिक्षा से छूट गया है।
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आज उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि एक ही समाज में रहते हुए परिवारों के आपसी सम्बंध कमजोर हो गए हैं, नाते-रिश्तेदारी का महत्व कम हो गया है तथा पड़ोस की भावना खंडित हो रही है और नई तरह के व्यावसायिक, आर्थिक तथा उपयोगितावादी सम्बंध बन रहे हैं। आज की हमारी शिक्षा पारिवारिक विघटन का कारण बन रही है क्योंकि आज पारिवारिक इकाई का केंद्र सामाजिक न रहकर आर्थिक हो गया है। आज की शिक्षा पद्धति के अनुसार पढ़ा-लिखा व्यक्ति जीवन की हर स्थिति को अपनी सुविधा के अनुसार देखता है जबकि प्राचीन व्यवस्था में वह सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्वयं को देखता था तथा पारिवारिक-सामाजिक मर्यादा के सांचे में ढलने का प्रयत्न करता था। आज की शिक्षा व्यक्ति में सामाजिक सहयोग, सहकारिता की भावना तथा जन सम्पर्क के गुणों का विकास नहीं कर पा रही है। आज आत्मनिर्भता की सीढ़ियां चढ़ते हुए हम इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि आज किसी को किसी की जरूरत नहीं यही कारण है कि आज की हमारी संतान बड़ी सहजता से उन माता-पिता के उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ कैरियर की दौड़ में शामिल हो जाती है, जिन्होंने उसका पालन-पोषण करने के लिए जाने कितनी प्रकार की मानसिक और शारीरिक यंत्रणाएं सही होती हैं। आज शिक्षण संस्थाओं में विद्याािर्थयों को किसी प्रकार के मातृ-ऋण और पितृ-ऋण की शिक्षा नहीं दी जाती बल्कि उन्हें इस प्रकार का ज्ञान दिया जाता है कि जिस प्रकार का ज्ञान और व्यवसाय उन्हें अधिक धन अर्जित करने के योग्य बनाता है। आज की शिक्षा का मूल सरोकार अर्थ और अर्थ से सम्बंधित अन्य विषय हैं। संस्कृति, समाज, परिवार आदि उसके दायरे से बाहर हैं। आज परिवारों की मानसिकता भी ऐसी बन गई है कि वे भी अपनी सन्तान से अच्छा सामाजिक नागरिक होने की उतनी अपेक्षा नहीं करते जितना सम्पन्न नागरिक होने की करते हैं। आज की स्थितियों में परिवार के सदस्यों तथा माता-पिता के पास बच्चों को सामान्य व्यावसायिक ज्ञान सिखाने के लिए अवकाश ही नहीं है जबकि प्राचीनकाल में बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा परिवार द्वारा ही दी जाती थी।
प्राचीनकाल की शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थियों और गुरुओं का सम्बंध आदर्श हुआ करता था जबकि आज शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों की भीड़ के होते ऐसे सम्बंध की उम्मीद कम ही की जाती है क्योंकि ऐसा अवकाश ही नहीं होता। दूसरी बात यह भी है कि आदर-सम्मान के भाव उपभोक्तावादी संस्कृति के तराजू के पलड़े में बहुत हल्के पड़ने लगे हैं। ऐसी भी स्थितियों की हम कल्पना कर सकते हैं कि सम्पन्नता के शीर्ष पर पहुंचा हुआ विद्यार्थी अपने गुरु को पहचानने से इन्कार कर दे।
आज के विद्यार्थी गुरुओं को मारने-पीटने तक से परहेज नहीं करते, केवल विद्यार्थी ही नहीं उनके अभिभावक भी अध्यापक को धप्पड़ मार सकते हैं। आज के अध्यापक भी शायद पहले के आदर्श अध्यापक नहीं रहे जो लगन से विद्यार्थियों का पथ-प्रदर्शन किया करते थे। हमारे संविधान ने आज अर्थ के मुकाकले शिक्षा को इस तरह से नकारा भी है कि सम्पन्न व्यवसायी की महत्वकांक्षी उदण्ड सन्तान शिक्षकों को खरीदने की बात धड़ल्ले से कर सकती है और शिक्षा के महत्व को नकार सकती है। इसी शिक्षा का प्रभाव कि आज शिक्षण संस्थाओं में गुरुओं का तथा परिवार और समाज में बड़े-बूढ़ों का सम्मान हो की बजाय उन्हें फालतू होने का अहसास ढोना पड़ रहा है।
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आधुनिक शिक्षा ने व्यक्ति ने वैयक्तिक चेतना का इस सीमा तक विस्तार कर दिया है कि परिवारिक विघटन जोर पकड़ता जा रहा है, कृषि पर आधारित ग्रामीण व्यवस्था ध्वस्त हो रही है, शहरीकरण से भी आगे बढ़कर विदेशीकरण हो रहा है। एकान्तिक परिवारों का प्रचलन बढ़ जाने के कारण बच्चों के पालन-पोषण तथा देखभाल की समस्याओं से निबटने के लिए डे-बोर्डिंग स्कूलों की स्थापना हो रही है तथा बुजुर्गों की सार-सम्भाल करने के लिए वृद्धाश्रमों का निर्माण हो रहा है। आज की स्थितियों में आज हम देखते हैं कि नारी-शिक्षा का प्रभाव भी समाज पर व्यापक रूप से पड़ रहा है। आज नारियों में स्वच्छन्दतावादी सोच विकसित होने के कारण सामाजिक मूल्यों के प्रति विद्रोह की भावना पनक रही है। आज की पढ़ी-लिखी नारियों के पारिवारिक-सामाजिक परिवेश में ठीक से समायोजित न होने के कारण सम्बंधों के धरातल बदल रहे हैं। आज नारियों में घर की बजाय नौकरी और आत्मनिर्भरता की धारणा बलवती होने के कारण विवाह-विच्छेद बढ़ रहे हैं तथा तनाव की स्थितियों में आत्महत्याओं का ग्राफ भी ऊपर जा रहा है। आज की शिक्षा व्यवस्था ने स्वच्छन्दतावादी सोच के मद्देनजर विवाह की संस्था पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा के समाज के प्रति सरोकारों से दूर हटते जाने के बावजूद इस प्रकार की शिक्षा आज की अनिर्वायता भी बन गई है क्योंकि भारत को विश्व के साथ आगे बढ़ना है तथा विकास की नई मंजिलें पानी हैं।
आज बेशक हम अनुभव करते हैं कि हमारे समाज के सामने अनेक चुनौतियां हैं, शिक्षा में दार्शनिक शून्यता की स्थिति है, सब कुछ भावना शून्य, यांत्रिक सा हो गया है। आज की हमारी शिक्षा न तो सामाजिक चुनौतियां का हल निकालने के लिए प्रयत्नशील है और न ही जीवन की सहज आवश्यकताओं के साथ अपना सम्बंध जोड़ पा रही है। इस विषय में श्यामाचरण दूबे की पुस्तक (शिक्षा समाज और भविष्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली पृ. 19) में कहा गया कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली समाज का ही अंग होती है और उसकी एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका होती है, इसमें ज्ञानार्जन और स्वत्रंत अन्वेषण के आदर्श यद्यपि प्रशसंनीय हैं लेकिन उनमें सार्थकता तथा सौदेश्यता तभी आती है जब वे समाज की आवश्वकताओं की पूर्ति के व्यापक लक्ष्य की ओर उन्मुख हों। उन्हें इन लक्ष्यों की दिशा में प्रेरित करना शिक्षा का ही दायित्व है। आज शिक्षाशास्त्रियों तथा शिक्षा नीति बनाने वाले विद्वानों को ध्यान में रखना चाहिए कि समाज में विघटन, अनुशानहीनता तथा अराजकता की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए शिक्षा को व्यक्ति के समाजीकरण के अपने महत्वपूर्ण लक्ष्य से जुड़े रहना होगा। आज आवश्यकता है कि आधुनिक काल की तनाव, निराशा तथा विभ्रम की स्थिति से मुक्ति पाने के लिए शिक्षा को समाज-संगत बनाने की दिशा में प्रयत्न हो।
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आज हम अनुभव करते हैं कि वैज्ञानिक उन्नति के चरम पर पहुंची भौतिक सुख सुविधाओं से युक्त आज की विश्व सभ्यता संकट के नए दौर से गुजर रही है, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, आतंकवाद, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक वर्चस्व की आड़ में अपना खेल खेल रहा है, पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है तथा प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन से उनकी समाप्ति की चिंता पैदा होने लगी है। आज मानव-जीवन के लिए संकट की उन स्थितियों में शिक्षा को अपनी भूमिका निभानी है। आज हमारा दिशा-बोध खो गया है, मूल्य असंतुलित हो गए हैं, सोच विचार के ढंग, संगठन बनाने के तरीके और कार्य करने की पुरानी नीतियां कारगर नहीं रही हैं। ऐसी स्थितियों में एक न्यायपूर्ण विश्व-व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे शिक्षा को सही नेतृत्व देने वाले नेताओं तथा उन्नत और आदर्श विचारों वाले नागरिकों का निर्माण करना है। इस नई तरह की समाज-व्यवस्था के लिए समतावादी लोकाचार और सेवा के भाव की आवश्वता है। संसार के संसाधनों और उत्पादन के समान बंटवारे के लिए अनुकूल वातावरण बनाने की भी आवश्यकता है। आज शिक्षा को समाज में से हर प्रकार के अलगाववादी पहलुओं को समाप्त करके मानव समानता की संकल्पना को सिद्ध करते हुए समाज को दिशा देनी है, नये को आत्मसात करते हुए अपनी सांस्कृतिक धरोहर यथा योग, आयुर्वेद, आदर्श पारिवारिक संरचना तथा गुरु-शिष्य परम्परा की सरंक्षा करते हुए नई व्यवस्था के साथ उसका सामंजस्य बिठाते हुए भारत यह काम बखूबी कर सकता है तथा विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है। भारत को चाहिए कि वह अपनी मूलभूत आदर्श परम्पराओं को गतिशील बनाते हुए अपनी सामाजिक व्यवस्था को विघटन से बचाए तथा विदेशों में भी उसका प्रचार-प्रसार करे। भारत को चाहिए कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था का विकास करे जो व्यक्ति की विवेचनात्मक दृष्टि को विकसित करते हुए अपनी विरासत का मूल्यांकन करने में उसे सक्षम बनाए।
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