डॉ राहुल सिंह की कलम से
वाराणसी: मानव जाति अपने सृजन से ही स्वयं को
अभिव्यक्त करने के तरह-तरह के माध्यम खोजती रही है। आपसी संकेतों के सहारे
एक-दूसरे को समझने की ये कोशिशें अभिव्यक्ति के सर्वोच्च शिखर पर तब पहुँच गई जब
भाषा का विकास हुआ। भाषा लोगों को आपस मे जोड़ने का सबसे सरल और जरूरी माध्यम है।
आज यानी 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर, इस आलेख में हिंदी भाषा पर चर्चा की गई है।
14 सितंबर को ही हिंदी दिवस क्यों मनाया जाता है?
दरअसल इसी दिन संविधान सभा ने वर्ष 1949 में हिंदी को
राजभाषा के रूप में अपनाया था। आजादी के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के
संबंध में तमाम बहस-मुहाबिसें हुईं। अहिंदी भाषी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए
जाने के पक्षधर नहीं थे। इनमें भी दक्षिण भारतीय राज्य जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल प्रमुख थे। उनका तर्क था कि हिंदी उनकी
मातृभाषा नहीं है और यदि इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाएगा तो ये
उनके साथ अन्याय सरीखा होगा। अहिंदी भाषी राज्यों के विरोध को देखते हुए संविधान
निर्माताओं ने मध्यमार्ग अपनाते हुए हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया, इसके साथ ही अंग्रेजी को भी राज्यभाषा का दर्जा दिया गया। वर्ष 1953
में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने 14 सितंबर
को हिंदी दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव दिया तब से ये दिन हिंदी दिवस के
रूप में मनाया जाने लगा।
हिंदी भाषा की विकास यात्रा
एक भाषा के रूप में अगर हिंदी भाषा की विकास यात्रा की बात करें तो यह एक लंबी और सतत प्रक्रिया है। एक भाषा के विकास में उस समाज और संस्कृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जहाँ पर ये बोली जाती है। हिंदी भाषा के विकास में भी समाज और संस्कृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है; खासकर उत्तर भारतीय राज्यों की भूमिका। भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत रही है और इसी भाषा के विभिन्न काल खंडों में अलग-अलग स्वरूपों में हुए वियोजन से हिंदी का विकास हुआ है।
संस्कृत भाषा से पालि, पालि से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से अवहट्ट, अवहट्ट से पुरानी हिंदी और पुरानी हिंदी से आधुनिक हिंदी का विकास हुआ है जिसे आज हम बोलते है। हालांकि इसे लेकर मतभेद है कि अपभ्रंश से हिंदी का विकास हुआ है या पुरानी हिंदी से। मगर वर्तमान भाषाविज्ञानी इसे अपभ्रंश से ही विकसित हुआ मानते है।
अगर हिंदी भाषा के विकास के कालखंड की बात करें तो यह तीन कालों में
विकसित हुई- पहला कालखंड 1100 ईस्वी - 1350 ईस्वी
का माना जाता है, इसे प्राचीन हिंदी का काल कहा जाता है।
दूसरा कालखंड मध्य काल (1350 ईस्वी - 1850 ईस्वी) कहा जाता है। इस काल में हिंदी भाषा की बोलियों अवधी और ब्रज में
विपुल साहित्य रचा गया। तीसरा कालखंड 1850 ईस्वी से अब तक
माना जाता है और इसे आधुनिक काल की संज्ञा दी जाती है। इस काल में हिंदी भाषा का
स्वरूप बेहद तेजी से बदला है।
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दरअसल इस काल में हिंदी जन-जन की भाषा बन गई। ये वो दौर था जब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी और इस दौरान हिंदी का संपर्क भाषा के रूप में प्रचलन खूब बढ़ा। ये हिंदी भाषा का ही असर था कि उत्तर भारत ही नहीं दक्षिण भारत से भी आने वाले आजादी के नायकों ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप मे स्वीकार किये जाने की पुरजोर वकालत की। हालांकि हिंदी भाषा को आज तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका है।
क्यों नहीं है हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा?
यदि राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अंतर की बात की जाए तो इनमें दो प्रमुख अंतर हैं। एक अंतर इन्हें बोलने वालों की संख्या से है और दूसरा अंतर इनके प्रयोग का है। राष्ट्रभाषा जहाँ जनसाधारण की भाषा होती है और लोग इससे भावात्मक और सांस्कृतिक रूप से जुड़े होते हैं तो वही राजभाषा का सीमित प्रयोग होता है। राजभाषा का प्रयोग अक्सर सरकारी कार्यालयों और सरकारी कार्मिकों द्वारा किया जाता है। कुछ देश जैसे ब्रिटेन की इंग्लिश, जर्मनी की जर्मन और पाकिस्तान की उर्दू; की राष्ट्रभाषा और राजभाषा एक ही है। मगर बहुभाषी देशों के साथ यह समस्या है। यहाँ राष्ट्रभाषा और राजभाषा अलग-अलग होती है।
राष्ट्रभाषा किसी देश को एक करने के लिहाज से बेहद महत्त्वपूर्ण होती है। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में गुजरात के भरूच में हुए गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की वकालत की थी-
"भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है क्योंकि यह अधिकांश भारतीयों द्वारा बोली जाती है; यह समस्त भारत में आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक सम्पर्क माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम है तथा इसे सारे देश के लिए सीखना आवश्यक है।"
हालांकि आजादी के बाद इसे लेकर तमाम तरह के विवाद हुए और अंततः अंग्रेजी के साथ इसे राजभाषा के रूप में ही स्वीकार किया गया। शुरूआत में तो यह प्रावधान 15 वर्षों के लिए ही था और साथ ही संसद को भी ये शक्ति दी गई थी कि वो अंग्रेजी के प्रयोग को बढ़ा सकता है। वर्ष 1965 में हिंदी को एकमात्र राजभाषा बनाए जाने के समय के पूर्व ही अहिंदी भाषी राज्यों का विरोध इस कदर तीव्र हो गया कि अंततः तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को अहिंदी भाषी राज्यों को ये आश्वासन देना पड़ा कि आपकी सहमति के बिना हिंदी को एकमात्र राजभाषा नहीं बनाया जाएगा।
इसीलिए वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया गया। वर्ष 1967 में इसे संशोधित किया गया। इसमें किये गए प्रावधानों से अहिंदी भाषी राज्यों की तो चिंता खत्म हो गई मगर हिंदी को राष्ट्रीय एकता का प्रमुख तत्व मानने वाले लोगों की चिंताएं बढ़ गई। सरकार ने इन चिंताओं को संबोधित करते हुए त्रिभाषा फार्मूला दिया। इसके अंतर्गत पहली भाषा मातृभाषा होगी जिसमें प्रारंभिक शिक्षा दी जाएगी। दूसरी भाषा गैर हिन्दी भाषियों के लिए हिंदी और हिंदी भाषियों के लिए आठवीं अनुसूची में शामिल कोई भी भाषा होगी। तीसरी भाषा अंतर्राष्ट्रीय भाषा यानी अंग्रेजी होगी ताकि शिक्षित भारतीय विश्व से भी आसानी से जुड़ सकें।
हालांकि विभिन्न राज्यों की सहमति के अभाव में इसे लागू नहीं किया जा सका। इसी क्रम वर्ष 1976 में राजभाषा अधिनियम लाया गया और इसके अंतर्गत राजभाषा विभाग की स्थापना की गई। यह विभाग ही हिंदी के प्रचार-प्रसार से संबंधित विभिन्न समारोहों जैसे हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा और हिंदी सप्ताह का आयोजन करता है। इसी के तत्त्वाधान में 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस भी मनाया जाता है।
अगर हिंदी भाषा की संवैधानिक स्थिति की बात की जाए तो यह राजभाषा के रूप में संविधान के भाग 5, भाग 6, भाग 17 में समाविष्ट है। भाग 17 में राजभाषा शीर्षक के अंतर्गत 4 अध्याय है। इसमें संघ शासन, प्रादेशिक शासन, उच्चतम और उच्च न्यायालयों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष निर्देश दिए गए हैं।
भाग 5 के अनुच्छेद 120 में बताया गया है कि संसदीय कामकाज की भाषा हिंदी और अंग्रेजी होगी। यदि किन्हीं सदस्यो को इन्हें बोलने में दिक्कतें हैं तो वो अध्यक्ष की अनुमति लेकर अपनी भाषा में बात कह सकते हैं। भाग 6 के अंतर्गत अनुच्छेद 210 में राज्य विधानमंडल के लिए भी ऐसे प्रावधान हैं।
अगर हिंदी भाषा की वैश्विक स्थिति की बात की जाए तो यह विश्व के 150 से
अधिक देशों में फैले 2 करोड़ भारतीयों द्वारा बोली जाती है।
इसके अलावा 40 देशों के 600 से अधिक
विश्वविद्यालयों और स्कूलों में पढाई जाती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक विश्व की
सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा मंदारिन है तो दूसरा स्थान हिंदी भाषा का है। इसके
अलावा भारत और फिजी की यह राजभाषा है। ब्रिटिश भारत काल के दौरान बहुत से श्रमिको
को भारत से बाहर ले जाया गया था। इनमें से अधिकांश देशों में हिंदी भाषा आज एक
क्षेत्रीय भाषा है; ये देश है- मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिनाद, गुयाना
आदि। मॉरीशस में तो विश्व हिंदी सचिवालय की भी स्थापना की गई है। हालांकि संयुक्त
राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा अभी भी हिंदी को नहीं मिल सका है।
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चुनौतियाँ
अगर हिंदी भाषा की एक भाषा के तौर पर सामयिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो इसके समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो इसे 'राष्ट्रभाषा की स्वीकार्यता' का न मिलना है। इसके अलावा एक उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग ऐसा भी है जो हिंदी बोलने में शर्म और हिचकिचाहट महसूस करता है। हिंदी भारत की सार्वभौमिक संवाद भाषा भी नहीं है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 41 फीसदी आबादी की ही मातृभाषा हिंदी है। इसके अलावा लगभग 75 फीसदी भारतीयों की दूसरी भाषा हिंदी है जो इसे बोल और समझ सकते हैं।
हिंदी भाषा के सामने एक प्रमुख चुनौती यह है कि यह अब तक रोजगार की भाषा नहीं बन पाई है। आज तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों के दैनिक कामकाज से लेकर कार्य संचालन की भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी अपने निहित स्वार्थों के लिए हिंदी का विरोध करते हैं। अभी भी भारत में उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का माध्यम ज्यादातर अंग्रेजी ही रहता है। हिंदी भाषा की हालत आज ऐसी है कि इसके संबंध में जागरूकता सृजन के लिए विभिन्न सेमिनारों, समारोहों और कार्यक्रमों का सहारा लेना पड़ता है।
आगे की राह
हालांकि इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने हिंदी भाषा के भविष्य के संबंध में भी नई राहें दिखाई है। गूगल के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा में जहाँ विषयवस्तु निर्माण की रफ्तार 19 फीसदी है तो हिंदी के लिए ये आंकड़ा 94 फीसदी है। इसलिए हिंदी को नई सूचना-प्रौद्योगिकी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो ये इस भाषा के विकास में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के स्तर पर तो प्रयास किए ही जाने चाहिए, निजी स्तर पर भी लोगों को इसे खूब प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हिंदी भाषियों को भी गैर हिंदी भाषियों को खुले दिल से स्वीकार करना होगा। उनकी भाषा-संस्कृति को समझना होगा तभी वो हिंदी को खुले मन से स्वीकार करने को तैयार होंगे।
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