वाराणसी: कुष्ठ रोग न तो छूने से है होता है और न ही पूर्वजन्म के पाप से। यह कहना है उन कुष्ठ रोगियों का जो संकट मोचन मंदिर के समीप स्थित ‘काशी विश्वनाथ कुष्ठ आश्रम’ में वर्षों से रह रहे हैं। इन रोगियों ने कहा कि कुष्ठ रोग के प्रति काश चार दशक पहले ऐसी जागरूकता आई होती तो आज हमारा जीवन इतना जटिल न होता। यहां रहने की बजाय आज हम भी अपने घर-परिवार के बीच होते। आश्रम ने हमें सहारा दिया और आज हम सब इसी के बदौलत जिंदा हैं।
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इस आश्रम की स्थापना वर्ष 1975 में हुई थी। वर्तमान में कुल 25 कुष्ठ रोगी यहां रहते हैं। इनमें 14 महिलायें व 11 पुरुष हैं। इनमें लगभग सभी 40 से अधिक उम्र के हैं। बचपन और युवा अवस्था में हुए कुष्ठ रोग और उसके बाद सामाजिक तिरस्कार और इस कुष्ठ आश्रम तक पहुंचने की कहानी को याद कर उनकी आंखें आंसुओं से भर जाती हैं। आश्रम के बुजुर्ग व पुरुलिया के मूल निवासी कुष्ठ रोगी लखी कांत डे बताते हैं ‘जब वह 14 वर्ष के थे तभी इस बीमारी ने उन्हें अपनी गिरफ्त में लिया था। तब का समाज इस रोग को बहुत ही गलत नजरिये से देखता था। इस रोग के होते ही उनके परिवार से गांव के लोगों ने रिश्ता तोड़ लिया। खुद उनका तो घर से बाहर कदम रखना भी मुश्किल हो चुका था। गांव के तालाब में उन्हें स्नान करते देख गांव वालों ने सिर्फ उन्हें ही नहीं उनके परिवार वालों को भी बुरी तरह पीटा। कुष्ठ रोग की वजह से उनके और परिजनों के साथ हो रहे इस व्यवहार को देख उनका मन तब इतना दुखी हुआ कि उन्होंने घर छोड़ दिया और बनारस आकर गंगाघाट के किनारे भींख मांगने लगे।
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वर्ष 1975 में जब यह आश्रम खुला तब वह यहां आ गये और तभी से यहां रह रहे हैं। इस आश्रम में बिहार की रहने वाली चंचला राय (45 वर्ष) बताती हैं कि 18 वर्ष की उम्र में हुई शादी के बाद उन्हें कुष्ठ रोग हुआ तब ससुराल वालों ने उन्हें निकाल दिया। मायके के लोगों ने भी साथ नहीं दिया। मजबूरी में वह दर-दर भटकती हुई बनारस आ गयी। यहां दशाश्वमेघ क्षेत्र में भींख मांग कर जीवन यापन कर रही थी तभी इस आश्रम की जानकारी हुई और वह यहां आ गयी। लगभग 25 वर्ष से वह इस आश्रम में रह रहीं है। आश्रम में रहने वाली झारखण्ड की 55 वर्षीय गीता बताती है कि वह घर की सबसे बड़ी लड़की थी। कुष्ठ रोग होने के बाद उनकी दो छोटी बहनों की शादी में संकट आने लगा। रोज-रोज के तानों से ऊब कर उन्होंने घर छोड़ा और अब यह आश्रम ही उनका अपना घर हो चुका है। लगभग ऐसी ही व्यथा आश्रम में रहने वाली बेहुला (52 वर्ष), अर्जुन शर्मा (50 वर्ष) जैसे अन्य कुष्ठ रोगियों की भी है। 75 वर्षीय कुष्ठ रोगी फुलेश्वर कहते हैं हम सभी को इस बात का बेहद दुःख है कि चार दशक पहले जब उन्हें कुष्ठ रोग हुआ तबके समाज में आज की तरह इस रोग के प्रति नजरिया क्यों नहीं था। वह कहते है काश तब का समाज भी इसे पूर्व जन्मों का पाप न समझ कर कुष्ठ को रोग समझा होता तो आज हमें आज यह दिन न देखना होता लेकिन खुशी इस बाद की भी है कि समाज में कुष्ठ के प्रति सोच अब पूरी तरह बदल चुकी है। लोग यह भी मान चुके है कि यह न तो पूर्व जन्मों के पाप की वजह से होता और न ही छुआ-छूत से। लखीकांत डे कहते है समाज की इस बदली सोच ने हम सभी को भी उत्साहित किया है। यही कारण है कि हम भी कुष्ठ रोग के खिलाफ अलख जगाते हैं। लोगों को समझाते है कि यह छुआछूत से नहीं होता। रोग के लक्षण नजर आने पर इसे छिपाना नहीं चाहिए तत्काल इसका उपचार कराना चाहिये। उपचार से यह रोग पूरी तरह ठीक हो जाता है।
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क्या है कुष्ठ रोग - जिला कुष्ठ रोग अधिकारी व एसीएमओ डा. एके मौर्या बताते हैं कि अन्य रोगों की तरह कुष्ठ रोग भी एक प्रकार के सुक्ष्म कीटाणु से होता है। इसके रोगी की त्वचा पर हल्के पीले, लाल अथवा तांबे के रंग के धब्बे हो जाते है। इसके साथ ही उस स्थान पर सुन्नपन होना, बाल का न होना, हाथ-पैर में झनझनाहट आदि कुष्ठ रोग के लक्षण हो सकते हैं।
कुष्ठ रोग अब असाध्य नहीं - डा. एके मौर्या कहते हैं कि कुष्ठ रोग अब असाध्य नहीं रहा। इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं। प्रारम्भिक अवस्था में उपचार से ही इसके रोगी ठीक हो जाते है और उनमें दिव्यांगता नहीं हो पाती। वह बताते हैं कि सभी सरकारी अस्पतालों, स्वास्थ्य केन्द्रों में इसकी जांच व उपचार की मुफ्त व्यवस्था है। इसके उपचार में यदि कहीं किसी को दिक्कत आ रही हों तो वह उनसे सीधे भी सम्पर्क कर सकता है।
जनपद में कुष्ठ रोगी- वर्ष 2016-17 में बनारस में कुष्ठ रोगियों की संख्या 303 थी। वर्ष 2017-18 में 226, वर्ष 2018-19 में 133, वर्ष 2019-20 में 128, 2020-21 में 79 व वर्ष 21-22 में यह संख्या 75 पहुंच चुकी है।
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