वाराणसी: वाराणसी की दुर्गापूजा और पश्चिम बंगाल की विख्यात लोककला जात्रा का 103 साल पुराना संबंध अब दरकने लगा है। बीते तीन वर्षों से वाराणसी शहर की किसी भी दुर्गापूजा में बंगाल का जात्रादल शामिल नहीं हुआ। बंगाल के पहले जात्रा दल ने वर्ष 1918 में पहली बार वाराणसी में प्रदर्शन किया था। पहली जात्रा का मंचन अकबरकालीन भारत पर आधारित ऐतिहासिक प्रहसन पर था।
शोभित जात्रा दल ने निमाई बाबू और नीलाद्रि रानी ने अपनी 24
सदस्यीय मंडली के साथ मुगलाकलीन भारत का चित्र प्रस्तुत किया था।
यह महज संयोग ही है कि इस परंपरा के वाराणसी में सौ साल पूरे होने पर कोलकाता की
रूप-ओ-रंग जात्रा यूनिट कोलकाता के कलाकारों ने 2018 में भी
अकबर कालीन भारत का प्रहसन मंचित किया था। इसके बाद जात्रा नहीं हुई। सौ साल पहले
प्रकाश के लिए पंचलाइट (मिट्ठी के तेल से जलने वाला पेट्रोमेक्स) इस्तेमाल किए
जाते थे. सौ साल बाद एलईडी की रोशन में जात्रा मंडप जगमग था। तब महिलाओं की भूमिका
भी पुरुष ही निभाते थे। अब यात्रा दलों में महिलाओं की सहभागिता पुरुषों के समकक्ष
हो चुकी है। तब लाउस्पीकर के बिना जात्रा होती थी अब कॉलर माइक भी इस्तेमाल होने
लगा है। तब पात्रों के आभूषण फूलों और पत्तियों के होते थे अब उनकी जगह पत्थर के
चमकीले नगों और धातुओं के आभूषणों ने ले ली है। अगर नहीं बदली है तो जात्रा की
शैली, मुक्ताकाशीय मंच और मंच के चारों ओर
दर्शकों के बैठने की परंपरा वैसी की वैसी है। राखाल सिंह,
दिलीप सिंह, शांति
गोपाल जैसे सुप्रसिद्ध जात्रा कर्मियों ने वाराणसी की धरती से ही अपने करियर का
श्रीगणेश किया था। कालांतर में उन्हें पूरे देश में ख्याति मिली। शिवदास मुखर्जी,
दीजू भवाल, आशुतोष
मुखर्जी, भोला पाल जैसे ख्यतिलब्ध जात्रा कर्मी
वाराणसी की धरती को अपनी कला का मुरीद बना चुके हैं। अब इनमें से कोई जीवित नहीं।
काशी दुर्गोत्सव समिति के सचिव अभिषेक चौधरी के अनुसार बीती सदी के छठे दशक में
महिलाओं को जात्रा में प्रवेश मिला। उसके बाद केतकी दत्ता और ज्योत्सना दत्ता जैसी
कलाकारों ने अपने नाम का सिक्का जमाया।
कोट
सन 1960 से पहले
तक पुरुष कलाकार ही महिलाओं की भूमिका निभाते थे। उन दिनों एक पुरुष कलाकार
महिलाओं की भूमिका इतनी जबरदस्त करते थे कि उनका नाम ही छवि रानी पड़ गया था।
-अभिषेक चौधरी, सचिव,
केडीएस
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