प्रोफेसर राहुल सिंह की कलम से
जिस दौर में मशीनें सोचने लगी हैं, वहाँ इंसान को सोचने तक की फुर्सत नहीं बची। चारों ओर तकनीकी चमत्कारों की चमक है, बटन दबाते ही काम हो जाता है, स्क्रीन पर आंकड़े झिलमिलाते हैं, और हर चीज़ पहले से कहीं तेज़, सटीक और सस्ती हो गई है। लेकिन इसी तेज़ी में इंसान कहीं पीछे छूट गया है। जिन हाथों ने इन मशीनों को गढ़ा, वही आज खाली हैं। जिन आँखों ने इनके सपने देखे, वहीं आज नौकरी के विज्ञापन ढूंढ़ती फिर रही हैं। तकनीक आगे बढ़ी है, इसमें शक नहीं, पर सवाल यह है, क्या समाज भी साथ बढ़ा है? क्या इंसान की ज़रूरतें और सम्मान भी उसी अनुपात में सुरक्षित हुए हैं? या फिर यह विकास केवल गिने-चुने लोगों के लाभ का जरिया बन गया है, जिसमें बाकी लोग बहुसंख्यक भीड़ बनकर खड़े हैं, किसी आने वाली क्रांति की अनसुनी दस्तक के इंतज़ार में।

बेरोज़गारी को अक्सर नीति-निर्माण की असफलता, शिक्षा की कमी या आबादी के दबाव का परिणाम समझा जाता है। लेकिन यह समझ अधूरी है। अगर हम गहराई से देखें तो पता चलता है कि बेरोज़गारी कोई आकस्मिक या अस्थायी स्थिति नहीं है, बल्कि उस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की अंदरूनी संरचना का हिस्सा है, जिसमें उत्पादन का उद्देश्य मनुष्यता की ज़रूरतें पूरी करना नहीं, बल्कि लाभ कमाना होता है। यह व्यवस्था उत्पादन के साधनों को मुट्ठीभर लोगों के स्वामित्व में रखती है, और काम के अवसरों को भी उन्हीं सीमाओं के भीतर बाँध देती है जहाँ लाभ की संभावना हो।
इस व्यवस्था में काम की कोई कमी नहीं है। समाज में असंख्य ज़रूरतें हैं; बच्चों की देखभाल, बुज़ुर्गों के लिए सहारा, पर्यावरण की रक्षा, शिक्षा का विस्तार, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएँ। लेकिन ये ज़रूरतें तब तक रोज़गार नहीं बनतीं जब तक उनसे लाभ नहीं कमाया जा सकता। इसलिए यह कहना कि बेरोज़गारी है, अपने आप में भ्रम है। सही बात यह है कि लाभ देने वाले कामों की सीमाएँ तय कर दी गई हैं, और बाकी सभी मानवीय ज़रूरतें गैर-ज़रूरी घोषित कर दी गई हैं क्योंकि वे लाभ नहीं देतीं। इस व्यवस्था के लिए बेरोज़गारी समस्या नहीं, रणनीतिक स्थिति है। ऐसा वर्ग, जो काम के लिए लालायित है, पर काम नहीं पा रहा, वह काम करने वालों के लिए निरंतर दबाव पैदा करता है। यह दबाव काम करने वालों को उनकी मज़दूरी, अधिकार और सम्मान में कटौती स्वीकार करने के लिए विवश करता है। इस तरह एक अदृश्य सेना हमेशा तैयार रखी जाती है जिसे किसी भी समय लगाया या हटाया जा सकता है। इससे एक ओर काम करने वालों में आपसी प्रतिस्पर्धा और असुरक्षा बनी रहती है, और दूसरी ओर पूँजी का नियंत्रण मजबूत होता जाता है।
तकनीक का विकास मानव इतिहास में अद्भुत उपलब्धि है, पर जिस तरह से उसका प्रयोग आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में हो रहा है, वह और अधिक बेरोज़गारी को जन्म दे रही है। तकनीकी उन्नति का उद्देश्य मानवीय श्रम को कम करना था ताकि इंसान को अधिक अवकाश और रचनात्मक जीवन मिले, लेकिन मौजूदा ढाँचे में तकनीक का प्रयोग श्रमिकों को हटाने और लाभ बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। उत्पादन की क्षमता तो कई गुना बढ़ी है, लेकिन उसी अनुपात में काम के अवसर नहीं बढ़े, बल्कि घटे हैं। आज के दौर में ऑटोमेशन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है। बैंक, रेलवे, कॉल सेंटर, बीमा, परिवहन और यहां तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी मशीनों और कोडों ने इंसानों की जगह ले ली है। इसका नतीजा यह है कि लाखों लोगों को काम से हटाया गया है और जो बचे हैं, उन्हें भी अस्थायी और असुरक्षित स्थितियों में काम करना पड़ रहा है। उन्हें यह डर हमेशा बना रहता है कि कल उनकी जगह कोई और मशीन या कोड ले लेगा। यह डर उन्हें कम वेतन, अधिक घंटे और अधिकारों के बिना काम करने के लिए मजबूर करता है।
तकनीक के इस तरह के प्रयोग से पूँजी का केंद्रीकरण और तेज़ होता है। जिन लोगों के पास तकनीक का स्वामित्व है, वही इसका लाभ उठा रहे हैं। वे हर उस क्षेत्र में तकनीक घुसा रहे हैं जहाँ इंसानी श्रम की जगह ली जा सकती है। इसका मतलब है कि काम का विभाजन अब मशीनों और मनुष्यों के बीच नहीं, बल्कि मशीनों और मुट्ठीभर स्वामियों के बीच हो गया है। आम आदमी केवल उपभोक्ता बन कर रह गया है, उत्पादक नहीं। जो उत्पादक हैं, वे या तो बेरोज़गार हो चुके हैं, या काम करते हुए भी असुरक्षित हैं। यह कहना कि तकनीक रोज़गार ख़त्म कर रही है, केवल आधा सच है। असली बात यह है कि तकनीक का प्रयोग किसके हाथ में है और किस उद्देश्य से किया जा रहा है। अगर समाज का नियंत्रण उत्पादन और तकनीक पर होता, तो यही तकनीक सबके लिए कम काम और बेहतर जीवन का ज़रिया बन सकती थी। उदाहरण के लिए, अगर तकनीक से उत्पादन बढ़ा है तो हर व्यक्ति के काम के घंटे घटाए जा सकते थे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। काम कुछ लोगों के हाथ से छिन गया और बाकी लोगों से ज़्यादा काम कराया जाने लगा।
तकनीक को लेकर आज जो डर फैलाया जा रहा है, कि यह काम छीन लेगी, वह केवल पूँजी के पक्ष में काम करता है। यह डर श्रमिकों को संगठित नहीं होने देता, उन्हें अपनी स्थिति सुधारने की मांग करने से रोकता है। वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने आवाज़ उठाई तो उनकी जगह मशीन आ जाएगी। इस डर का इस्तेमाल करके न केवल श्रमिकों का शोषण जारी रखा जाता है, बल्कि उनकी एकता भी तोड़ी जाती है। यह बड़ा भ्रम है कि शिक्षा, कौशल, या उद्यमिता से बेरोज़गारी का हल निकलेगा। मौजूदा व्यवस्था में जितना भी आप खुद को कुशल बनाएं, अगर आपका कौशल लाभ देने की स्थिति में नहीं है, तो आप बेरोज़गार ही रहेंगे। और अगर आपका कौशल लाभदायक है, तो भी आपको तब तक ही काम मिलेगा जब तक आपके स्थान पर कोई मशीन या सॉफ्टवेयर नहीं आ जाता। इसीलिए आज लोग तमाम डिग्रियां लेकर भी बेरोज़गार हैं, और लाखों लोग झूठे ऑनलाइन कोर्स करके खुद को ‘अगला स्टीव जॉब्स’ बनने की भ्रांति में जी रहे हैं।
तो समाधान क्या है? समाधान उस सोच में है जो समाज को केवल लाभ के पैमाने पर नहीं देखती। अगर समाज के सभी लोगों को भोजन, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, और गरिमामय जीवन चाहिए, तो यह मानना होगा कि उत्पादन का उद्देश्य लाभ नहीं, ज़रूरत हो। और जब तक उत्पादन का नियंत्रण कुछ लोगों के हाथ में रहेगा, जिनका उद्देश्य केवल मुनाफा है, तब तक तकनीक भी इंसानों के विरुद्ध हथियार बनी रहेगी। यदि उत्पादन का नियंत्रण समाज के हाथ में हो, तो तकनीक से लाभ केवल कुछ लोगों को नहीं, बल्कि पूरे समाज को मिल सकता है। यह संभव है कि सप्ताह में केवल चार दिन काम करके भी सबकी ज़रूरतें पूरी हों। हर इंसान को अपने जीवन में अवकाश, रचनात्मकता और आत्म-सम्मान मिले। तकनीक को स्कूलों, अस्पतालों, कृषि और पर्यावरण सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में लगाया जा सकता है; पर यह तभी होगा जब निर्णय समाज ले, पूँजी नहीं।
आज की बेरोज़गारी इसलिए खतरनाक है क्योंकि वह केवल आज के युवाओं की जेब खाली नहीं कर रही, वह आने वाली पीढ़ियों के सपनों को भी मार रही है। वह समाज में स्थायी असुरक्षा और निराशा का वातावरण बना रही है। लोग एक-दूसरे के दुश्मन बनते जा रहे हैं, क्योंकि काम के अवसर सीमित हैं और हर कोई उसी सीमित टुकड़े के लिए लड़ रहा है। यह स्थिति केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक और नैतिक संकट भी पैदा कर रही है। इसलिए यह सोचना कि सरकार कुछ नई योजनाएँ शुरू कर देगी और बेरोज़गारी खत्म हो जाएगी, केवल भ्रम है। जब तक समाज की संरचना में बदलाव नहीं होगा, जब तक उत्पादन का उद्देश्य लाभ के बजाय मानवीय ज़रूरतें नहीं बनेंगी, तब तक बेरोज़गारी स्थायी सच्चाई बनी रहेगी। तकनीक आती जाएगी, उत्पादन बढ़ता जाएगा, और आम आदमी पीछे छूटता जाएगा। बेरोज़गारी की असली वजह उस व्यवस्था में छिपी है जो इंसानों को काम तभी देती है जब वह उससे लाभ कमा सके।
वह व्यवस्था जो इंसानी ज़रूरतों को नहीं, बल्कि पूँजी की गति को प्राथमिकता देती है। तकनीक का विकास और बेरोज़गारी, दोनों उसी प्रक्रिया के दो चेहरे हैं। अगर इंसान को तकनीक का साथी बनाना है, न कि शिकार, तो पूरी सामाजिक संरचना को नये सिरे से गढ़ना होगा; ऐसी संरचना, जिसमें कोई भी काम इंसान की गरिमा से नीचे न हो, और कोई भी इंसान काम के अधिकार से वंचित न हो। अगर आप इस बात पर सोचने के लिए तैयार हैं कि तकनीक और बेरोज़गारी एक साथ क्यों बढ़ रहे हैं, तो इसका जवाब बाहर नहीं, इसी व्यवस्था के भीतर छिपा है। और अगर आप उस जवाब को पहचानते हैं, तो फिर बदलाव की दिशा भी साफ़ हो जाती है। उत्पादन, श्रम और तकनीक—all belong to the people—but only when the people reclaim them.
और जब हर कोना चुप हो जाएगा, जब मशीनें थकेंगी नहीं और इंसान थक कर गिर पड़ेगा, तब शायद कोई पूछेगा काम क्या केवल मुनाफे के लिए होता है? तब हवाओं में शायद वो आवाज़ गूंजेगी जो कहेगी नहीं, काम जीवन के लिए होता है। काम गरिमा के लिए होता है। खेतों में फिर बीज बोए जाएँगे, शहरों की मशीनें मनुष्यता की धड़कनों को सुनना सीखेंगी, और हर चेहरा जिसमें आज चिंता है, उसमें उम्मीद उगने लगेगी। उस दिन तकनीक इंसान से आगे नहीं, उसके साथ चलेगी। विकास फिर से परिभाषित होगा—जहाँ गति हो, पर दूसरों को रौंद कर नहीं; जहाँ चमक हो, पर आँखों की रोशनी छीने बिना; जहाँ भविष्य हो, पर अतीत की भूलों से सीखकर।